Saturday, 30 August 2025

 कविता :

क्लांत मन

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अक्सर ढलते दिन के साथ
उतरती है भीतर एक गाढ़ी चुप्पी
तब अपने से भी पराये हुए क्लान्त मन के पास
लाज़िम है भाषा का चुक जाना,
शब्दों का हाथ छूट जाना....
कुछ इसी तरह
एक भारी सी चुप लिये
उतरती है कोई-कोई शाम भी धीरे-धीरे
जैसे हो किसी बूढ़े सपने की चादर....
ख़ामोशी के आँगन में
आसमान से छूट कर
बिखर जाता रौशनी का अंतिम कण
खिड़कियों के पार जमा होने लगती
अनगिन चुप्पियाँ
आस-पास कोई पुकार नहीं
फ़क़त एक हवा की आवाज़ के
जो यादों के पत्ते उड़ाती दाख़िल हो जाती खिड़की से
ठीक उसी तरह
जैसे कोई पुराना दुख
चुपके से आ बैठा हो काँधे पर
शब्द गले में अटक जाते,
और आँखों से ढुलक आयी पीड़ा
जा छुपती मौन के पीछे                                                  तस्वीर: गूगल
उस क्षण, भाषा साथ नहीं देती t
केवल क़ायम होता है एक चुप्पा संवाद
मन और शाम के बीच
और अंदर-बाहर उमड़ आयी उदासी
लगने लगती किसी अनकही बात की तरह
जो न पूरी हुई, न ख़त्म
बस ठहर गयी भीतर
एक थकी हुई साँस हो जैसे !

-आभा खरे


6 comments:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर रविवार 31 अगस्त 2025 को लिंक की गई है....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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    1. मेरी रचना को पसंद करने और उसे अपने ब्लॉग पर स्थान देने हेतु सादर धन्यवाद।

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  2. बहुत ही सुन्दर रचना

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