Saturday, 4 January 2025

एक नवगीत - मगर सिर्फ जलते पुतले

एक नवगीत 

मगर सिर्फ जलते पुतले

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घर- बाहर ज़िन्दा हैं रावण 

हम बस पुतले जला रहें

सत्य समय का आज यही है 


रेत स्वार्थ की सोख रही है 

नमी प्यार की रिश्तों से

मतलब भर की बात करें फिर

मुकरें अपने वादों से


अपनापन अब हुआ दिखावा

बात किसी ने सत्य कही है....



बदनीयत इन आकाओं ने 

नफ़रत का अध्याय लिखा

दहशतगर्दी और हत्याएँ

हर सूँ जंगल राज दिखा 


मानवता के क़ातिल हैं वे

सदी, पर उनको ढो रही है.....


गली-मुहल्ला पास-पड़ोसी

धर्म जाति की भेंट चढ़े 

गुटुक के घुट्टी आस्था की 

शहर-शहर हैं लोग लड़े


आत्म- प्रशंसा का है दौर

बे-ढब ऐसी हवा बही है ...


सीखी भाषा संयम की पर

काम न बेटी के आयी

पढ़ना-लिखना व्यर्थ गया, जब

आग दहेज  ने लगायी


जली देख ससुराल में बेटी 

इंसानियत भी रो रही है..... 



आलीशान महल बेटे का 

मात-पिता का है कोना

देख-भाल नौकर के जिम्मे 

फर्ज़ यही तो बस होना 

 

खुले आम देखो अब दिखता

घर-घर ऐसा दूध-दही है.


--आभा खरे 

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