Wednesday, 14 December 2022

आभा खरे

आभा खरे की कविताएँ 

Saturday, 31 October 2020

शरद पूर्णिमा

 शरद पूर्णिमा 
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चार  हाइकु 

 

 1)

रास पूर्णिमा 

लिए शरद गंध 

छू गयी हवा !


2)

पुनों का चाँद 

लपका समन्दर 

अंक में भरा !


3)

चखती ओस 

अमृत का प्रसाद 

बांटें कौमुदी !


4)

जीमने बैठे 

अमृत का प्रसाद 

ओस के कण !



-आभा खरे  

Tuesday, 27 October 2020

अनुत्तरित प्रश्न


अनुत्तरित प्रश्न

 

क्या कभी देख पाओगे ?
स्त्री की देह से परे
उसकी आँखों में बसा तुम्हारे लिए प्यार
उसके होंठों पे ठहरी तुम्हारे लिए दुआ
उसकी धड्कनों में समाया तुम्हारा नाम 
 
शायद कभी नहीं ..!! 


क्या कभी जान पाओगे ?
स्त्री की खिलखिलाहटों के परे
उसकी हँसी में छुपा दर्द का मंज़र
उसके संग-संग चलता पीड़ा का सफ़र
उसके सम्मान को चाक करता उलाहनों का खंजर 
 
शायद कभी नहीं ......!! 

क्या कभी समझ पाओगे ?

स्त्री के प्रगतिशील होने से परे
उसका संघर्ष समाज में अपनी जगह बनाने में
उसका संघर्ष अपने अस्तित्व को स्थापित करने में
उसका संघर्ष घर परिवार और कार्यक्षेत्र में संतुलन बनाने में 
 
शायद कभी नहीं .....!!! ~आभा खरे~

Friday, 23 October 2020

चंद माहिया

चंद माहिया
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1)

मन से मन डोर कसी  

ऐसी लगन लागी

छवि उसकी नैनन बसी

 

2)

कितनी बेदर्दी हैं

दिल की सब बातें

नैनों ने कह दी हैं

 

3)

कुछ कहते कुछ सुनते

उल्फ़त में हम तुम

कुछ ख्वाब हसीं बुनते

 

4)

मन से मन बात चली

मौसम बदल गया

रातें भी हैं मचली

 

5)

आलम ये मत पूछो

क्या -क्या जतन किये

मिलने को, मत पूछो



- आभा खरे 

Friday, 10 July 2015

शिकायतें


बाद मुद्दतों के

अभी तलक
वो तमाम शिकायतें
वहीँ , वक़्त के उसी मोड़ पर
किसी मजबूत मिनार की तरह
खड़ी मिलती हैं
जहाँ से दो ज़िदगियों ने
चुक गए प्रेम की बैसाखी
का सहारा लेने से ज़्यादा
बेहतर समझा था
लड़खड़ाते क़दमों से
अपने-अपने क्षितिज को
तलाश लेना ....

गौर से देखो
तो दिख जाती हैं
कि !
ढह गयीं हैं कुछ ईंटें
गुस्से , अहंकार और बदसलूकी की
और चढ़ गयी है तमाम गर्द
 परत-दर-परत
दुःख , खीझ , आत्मग्लानि और पछतावे की ...

लेकिन फिर भी शिकायतें हैं कि
न उखड़ती है , न ढहती हैं
खड़ी है वहीँ
बिना डिगे ...........बड़ी मुस्तैदी से
रिश्तों में वापसी की संभावना को
ख़ारिज करते हुए ....!!!!

Thursday, 2 July 2015

सुई बन , कैंची मत बन



----सुई बन , कैंची मत बन-------
बचपन में, जब कभी
हम भाई-बहिन
आपस में झगड़ते थे
छोटी सी बात पर
माँ-माँ चिल्लाते थे
घर की परेशानियों से जूझती
पैसे की तंगी से उलझती
हमें बेहतर जीवन
देने को तत्पर रहती
माँ !!
मेरा हाथ पकड़ती
और
हमेशा की तरह
वही जाना-पहचाना
वाक्य दोहराती .......
"
सुई बन ,कैंची मत बन"
तब मेरा बालमन
इसे माँ की डांट समझ
कुछ समय बाद
सहज ही भूल जाता .....
आज उम्र के इस दौर में
एक सफल गृहणी का
कर्त्तव्य निभाते हुए ,
संयुक्त परिवार को
एक सूत्र में बांधते हुए
माँ के वाक्य में छुपे
गूढ़ अर्थ को जान पायी हूँ ....
आज जान गयी हूँ ...
कि , कैसे-----
सुई ... दो टुकड़ों को एक करती है
और
कैंची ...एक के दो टुकड़े करती है .....!!!

Tuesday, 14 October 2014

गुलदस्ता



छुड़ा रहे थे
जब तुम अपना हाथ
वक़्त बुन रहा था
एक गुलदस्ता
संग तुम्हारे बिताये
ख़ुशनुमा लम्हों के तिनकों से
कि !
वक़्त मुहैया करा देता है
कुछ राहतें भी.... !!!

उस दिन
कहा था तुमने
कि !
अक्सर गुलदस्ते
सूख जाया करते हैं
लेकिन ...
जानती हूँ मैं
कि !
पीड़ा की खाद
और बिछोह की नमी  रखेगी
गुलदस्ते में सजे खूबसूरत लम्हों को
सदा यूँ ही हरा-भरा ....!!