Sunday, 14 September 2025

कविता :

  सुख-दुख 


सुख चमकता है आँखों में ऐसे,

जैसे उतर आयी हो चाँदनी
काजल की नोक पर
छुपाये नहीं छुपता है दमकना इसका
यह नज़र आ जाता है
ख़ुद से ज़्यादा औरों को
अपनों को, परायों को!
दुःख वह सावन है
जो आँखों के बादलों में
चुपचाप कैद रहता
बरसना चाहे भी तो
रोक लो अगर उसे बरसने से,
तो रह जाती है भीतर ही भीतर
बस इक नमी सी
जिसे न कोई छू पाता
और न नज़र आता किसी को
न अपनों को, न परायों को!
सुख रहा सदा एक उत्सव सा
जिसमें सभी रहे आमंत्रित
अपने भी, ग़ैर भी
और दुःख !
रहा एक मंदिर तिमिर का
नितांत अपना
जिसमें साधक है,
बस एक ...."स्वयं"
-आभा खरे

Saturday, 30 August 2025

 कविता :

क्लांत मन

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अक्सर ढलते दिन के साथ
उतरती है भीतर एक गाढ़ी चुप्पी
तब अपने से भी पराये हुए क्लान्त मन के पास
लाज़िम है भाषा का चुक जाना,
शब्दों का हाथ छूट जाना....
कुछ इसी तरह
एक भारी सी चुप लिये
उतरती है कोई-कोई शाम भी धीरे-धीरे
जैसे हो किसी बूढ़े सपने की चादर....
ख़ामोशी के आँगन में
आसमान से छूट कर
बिखर जाता रौशनी का अंतिम कण
खिड़कियों के पार जमा होने लगती
अनगिन चुप्पियाँ
आस-पास कोई पुकार नहीं
फ़क़त एक हवा की आवाज़ के
जो यादों के पत्ते उड़ाती दाख़िल हो जाती खिड़की से
ठीक उसी तरह
जैसे कोई पुराना दुख
चुपके से आ बैठा हो काँधे पर
शब्द गले में अटक जाते,
और आँखों से ढुलक आयी पीड़ा
जा छुपती मौन के पीछे                                                  तस्वीर: गूगल
उस क्षण, भाषा साथ नहीं देती t
केवल क़ायम होता है एक चुप्पा संवाद
मन और शाम के बीच
और अंदर-बाहर उमड़ आयी उदासी
लगने लगती किसी अनकही बात की तरह
जो न पूरी हुई, न ख़त्म
बस ठहर गयी भीतर
एक थकी हुई साँस हो जैसे !

-आभा खरे


Saturday, 4 January 2025

एक नवगीत - मगर सिर्फ जलते पुतले

एक नवगीत 

मगर सिर्फ जलते पुतले

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घर- बाहर ज़िन्दा हैं रावण 

हम बस पुतले जला रहें

सत्य समय का आज यही है 


रेत स्वार्थ की सोख रही है 

नमी प्यार की रिश्तों से

मतलब भर की बात करें फिर

मुकरें अपने वादों से


अपनापन अब हुआ दिखावा

बात किसी ने सत्य कही है....



बदनीयत इन आकाओं ने 

नफ़रत का अध्याय लिखा

दहशतगर्दी और हत्याएँ

हर सूँ जंगल राज दिखा 


मानवता के क़ातिल हैं वे

सदी, पर उनको ढो रही है.....


गली-मुहल्ला पास-पड़ोसी

धर्म जाति की भेंट चढ़े 

गुटुक के घुट्टी आस्था की 

शहर-शहर हैं लोग लड़े


आत्म- प्रशंसा का है दौर

बे-ढब ऐसी हवा बही है ...


सीखी भाषा संयम की पर

काम न बेटी के आयी

पढ़ना-लिखना व्यर्थ गया, जब

आग दहेज  ने लगायी


जली देख ससुराल में बेटी 

इंसानियत भी रो रही है..... 



आलीशान महल बेटे का 

मात-पिता का है कोना

देख-भाल नौकर के जिम्मे 

फर्ज़ यही तो बस होना 

 

खुले आम देखो अब दिखता

घर-घर ऐसा दूध-दही है.


--आभा खरे 

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Wednesday, 14 December 2022

आभा खरे

आभा खरे की कविताएँ 

Saturday, 31 October 2020

शरद पूर्णिमा

 शरद पूर्णिमा 
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चार  हाइकु 

 

 1)

रास पूर्णिमा 

लिए शरद गंध 

छू गयी हवा !


2)

पुनों का चाँद 

लपका समन्दर 

अंक में भरा !


3)

चखती ओस 

अमृत का प्रसाद 

बांटें कौमुदी !


4)

जीमने बैठे 

अमृत का प्रसाद 

ओस के कण !



-आभा खरे  

Tuesday, 27 October 2020

अनुत्तरित प्रश्न


अनुत्तरित प्रश्न

 

क्या कभी देख पाओगे ?
स्त्री की देह से परे
उसकी आँखों में बसा तुम्हारे लिए प्यार
उसके होंठों पे ठहरी तुम्हारे लिए दुआ
उसकी धड्कनों में समाया तुम्हारा नाम 
 
शायद कभी नहीं ..!! 


क्या कभी जान पाओगे ?
स्त्री की खिलखिलाहटों के परे
उसकी हँसी में छुपा दर्द का मंज़र
उसके संग-संग चलता पीड़ा का सफ़र
उसके सम्मान को चाक करता उलाहनों का खंजर 
 
शायद कभी नहीं ......!! 

क्या कभी समझ पाओगे ?

स्त्री के प्रगतिशील होने से परे
उसका संघर्ष समाज में अपनी जगह बनाने में
उसका संघर्ष अपने अस्तित्व को स्थापित करने में
उसका संघर्ष घर परिवार और कार्यक्षेत्र में संतुलन बनाने में 
 
शायद कभी नहीं .....!!! ~आभा खरे~

Friday, 23 October 2020

चंद माहिया

चंद माहिया
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1)

मन से मन डोर कसी  

ऐसी लगन लागी

छवि उसकी नैनन बसी

 

2)

कितनी बेदर्दी हैं

दिल की सब बातें

नैनों ने कह दी हैं

 

3)

कुछ कहते कुछ सुनते

उल्फ़त में हम तुम

कुछ ख्वाब हसीं बुनते

 

4)

मन से मन बात चली

मौसम बदल गया

रातें भी हैं मचली

 

5)

आलम ये मत पूछो

क्या -क्या जतन किये

मिलने को, मत पूछो



- आभा खरे